प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 4
विवाह
(Marriage)
प्रश्न- प्राचीन भारत में विवाह के प्रकारों को बताइये।
अथवा
प्राचीन भारत में प्रचलित आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन कीजिए।
अथवा
प्राचीन भारत में विवाह के विविध प्रकारों की समीक्षा कीजिये।
अथवा
प्राचीन भारत में विवाह के विविध प्रकारों पर विस्तार से लिखिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. हिन्दू विवाह का क्या आशय है?
2. हिन्दू विवाह के अनुष्ठान बताइए।
3. मनुस्मृति में वर्णित विवाहों को स्पष्ट कीजिए।
4. प्राचीन भारत में प्रचलित आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन कीजिए।
5. प्राचीन भारत में विवाह के विविध प्रकारों पर एक टिप्पणी लिखिए।
6. "गान्धर्व विवाह पर नोट लिखिए।
7. अनुलोम और प्रतिलोम विवाह पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
हिन्दू विवाह का अर्थ
विवाह एक सर्वव्यापी संस्था है परन्तु हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में विवाह का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। हिन्दुओं में विवाह को संस्कार सभी संस्कारों में प्रमुख है और यह आश्रम व्यवस्था का केन्द्रीय तत्व है। इसके द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे पुरुषार्थों को पूरा किया जा सकता है, पाश्चात्य विचारकों ने विवाह एक ऐसी संस्था के रूप में माना है जिसका उद्देश्य यौन सन्तुष्टि और सन्तान को जन्म देना मात्र है, परन्तु हिन्दू धर्म में विवाह की एक दूसरी धारणा है। वेस्टर मार्क ने विवाह की परिभाषा दी है- “ विवाह एक या अधिक पुरुषों का या एक अधिक स्त्रियों के साथ होने वाला वह संबंध है जो प्रथा अथवा कानून के द्वारा स्वीकृत होता है और जिसमें दोनों पक्षों एवं उनसे उत्पन्न हुए बच्चों के अधिकारों और कर्त्तव्यों का समावेश होता है।"
वास्तव में हिन्दू विवाह एक संस्कार है वह एक अस्थायी कानून बन्धन न होकर जीवन भर का धार्मिक बन्धन है। जिसको तोड़ना हिन्दू सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध है। यह कोई संविदा न होकर संस्कार है जिसका उद्देश्य जीवन भर विभिन्न पुरुषार्थों की प्राप्ति का प्रयत्न करना है। पाश्चात्य विचारधारा के विपरीत हिन्दू विचार में यौन सन्तुष्टि को महत्व नहीं दिया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि 'हिन्दू विवाह पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए तथा स्त्री और पुरुष का वह सांस्कृतिक मिलना है जिसका तोड़ना नियम विरुद्ध और अधार्मिक समझा जाता है।
धार्मिक विधि विधान एवं अनुष्ठान
हिन्दू विवाह एक संस्कार है यह इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि विवाह की संपूर्ण प्रक्रिया धार्मिक विधियों एवं अनेक अनुष्ठानों से परिपूर्ण होती है। विवाह के समय जिन प्रमुख अनुष्ठानों एवं संस्कारों को पूरा किया जाता है उनकी संख्या प्रो० पी० वी० काणे ने 39 बतलायी हैं जिनमें से संस्कार के रूप में विवाह की धार्मिक प्रकृति स्पष्ट होती है।
1. वाग्दान - यह विवाह का पहला महत्वपूर्ण अनुष्ठान है। इसमें कन्या पक्ष वाले वर पक्ष के प्रस्ताव को स्वीकार करते हैं। आधुनिक युग में यह कार्य वर पक्ष द्वारा किया जाता है। इस अवसर पर वैदिक मंत्रों इत्यादि का उच्चारण होता है।
2. कन्यादान - विवाह के समय कन्या के पिता वर को अपनी पुत्री का दान देता है और उससे यह आश्वासन लेता है कि वह धर्म, अर्थ, काम की पूर्ति में कभी अपनी पत्नी का परित्याग नहीं करेगा और आजीवन उसे अपनी संगिनी बनाये रहेगा।
3. अग्नि स्थापन - कन्यादान के पश्चात् वर-वधूं के बन्धन को स्थायी बनाने के लिए अग्नि में आहुतियाँ दी जाती हैं और अग्नि से शक्ति एवं सुख की कामना की जाती है।
4. पाणिग्रहण - इसका अर्थ है दूसरे के हाथ को स्वीकार करना। वर-वधू का हाथ पकड़कर मंत्रों का उच्चारण करता है जिसका अर्थ होता है कि मैं तेरा हाथ पकड़कर सुख की कामना करना है, तू वृद्धावस्था तक मेरे साथ रहना, मेरा धर्म तेरा पोषण करना है और मेरे द्वारा सन्तान को जन्म देते हुए तू 100 वर्ष तक जीवित रहना।
5. अग्नि साक्षी - इसके अंतर्गत वर-वधू अग्नि के चारों और परिक्रमा करते हैं और यह कामना करते हैं कि ये दीर्घायु, तेजस्वी और मनस्वी हो, उनके अनेक पुत्र हों और ये 100 वर्ष तक देखें, 100 वर्ष तक जीवित रहें और 100 वर्ष तक सुनते रहें।
6. सप्तपदी - यह अत्यन्त महत्वपूर्ण अनुष्ठान है। इसमें वर-वधू, उत्तर दिशा की ओर 7 कदम आगे बढ़ते हैं और प्रत्येक वेग में क्रमशः अन्न, धन, सुख-सन्तान, प्राकृतिक सहायता और पारस्परिक सखाभाव की कामना करते हैं। साथ ही वे यह भी कामना करते हैं कि दोनों का मन एक-दूसरे के अनुकूल रहे।
उपरोक्त सभी विशेषतायें हिन्दू विवाह को एक धार्मिक संस्कार के रूप में प्रकट करती है। हिन्दू विवाह पूर्णतया धार्मिक जीवन से सम्बद्ध है और इसलिए यहे स्पष्ट धार्मिक संस्कार है।
गृहस्थ आश्रम में विवाह के महत्व पर बड़ा बल दिया गया है। तैत्तरीय ब्राह्मण के अनुसार बिना पत्नी के यज्ञ करने का कोई महत्व नहीं है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है - स्त्री पुरुष का आधा अंग पत्नी है। विवाह के बाद ही मनुष्य पूर्ण होता है। धार्मिक कृत्यों को करने के लिए पुनर्विवाह की प्रथा का जन्म हुआ था। अर्थशास्त्र में भी विवाह को एक संविदा के रूप में स्वीकार किया गया है। हिन्दू संस्कारों में विवाह एक महत्वपूर्ण संस्कार के रूप में है। मनुस्मृति में निम्न 8 प्रकार के विवाहों का उल्लेख है-
1. ब्रह्म विवाह - प्राचीनकाल में यह विवाह सर्वश्रेष्ठ दृष्टि से देखा जाता था। भारतीय हिन्दू समाज में इस विवाह को बड़े आदर्श के साथ देखा जाता था। इस विवाह में कन्या का पिता सुशील तथा संपन्न वर को अपने घर बुलाता था तथा फिर अपनी कन्या का दान करता था। इस प्रकार के विवाह में किसी भी पक्ष में धनलिप्सा न होती थी। ऋग्वेद के अनुसार सोम एवं सूर्य का विवाह इसी रीति से हुआ था। मनुस्मृति में इस प्रकार की परिभाषा निम्न रूप में है
आच्छाद्य चार्यथित्वा च श्रुति शीलता स्वयम्।
आहुय दानं कन्यायां ब्राह्म धर्मः प्रकीर्तियः ॥ "
हर्षकालीन भारत तक इस प्रकार के विवाह का अधिक चलन रहा। आजकल भी इसी विवाह का चलन है, परन्तु आज दहेज प्रथा का इसमें चलन अधिक रूप में हो गया है। दहेज इतना मांगा जाता है कि लड़की वाला इसको दे नहीं पाता है। हजारों कन्यायें इसी बुरी प्रथा के कारण बिना विवाह के मौत की गोद में सो जाती है। जिन लड़कियों का विवाह कम दहेज के रूप में होता है, वे बाद को जलाकर मार दी जाती है। आज हिन्दू समाज में दहेज प्रथा एक बुरी प्रथा समझी जाने लगी है, परन्तु लड़के वालों की मांगें दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है।
2. आसुर विवाह - मनुस्मृति के इस धर्म के विषय में कहा गया है।
ज्ञातिभ्यो द्राविणं दत्वा कन्याय चैव शस्तितः।
कन्या प्रदानं स्वच्छन्द्यापुरो धर्म उच्चते ॥
इस विवाह में वर पक्ष, कन्या पक्ष को धन दिया करता था। तब इस विवाह से वे पत्नी पति होते थे। यह विवाह गान्धर्व विवाह, राक्षस विवाह तथा पैशाच विवाह के मुकाबले में अच्छा समझा जाता था। विष्णुपुराण में ऋचीक ब्राह्मण द्वारा एक सहस्र अश्व देकर सत्यवती से विवाह करने का उल्लेख है। प्राचीनकाल में इस प्रकार के विवाह का अधिक चलन था।
3. दैव विवाह - इस प्रकार के विवाह का अधिक चलन यज्ञों के समय में बढ़ा। मनुस्मृति से हमें इस विवाह के संबंध में निम्न जानकारी प्राप्त होती है।
यज्ञे तु विक्ते सभ्यगृत्वि यजे कर्म कुर्वते।
अलंकृत्य सुतादानं दैव धर्म धर्म प्रत्यक्षते ||
इस विवाह के अंतर्गत कन्या को दुल्हन बनकर उसको अच्छे कपड़े तथा गहने पहनाकर पुरोहित को दक्षिणा के रूप में उसको दुल्हन के रूप में दे दिया जाता था। कहा जाता है कि च्वयन ऋषि का विवाह ऋषि के साथ इसी रीति के आधार पर हुआ था। बाद में राजा महाराजा अपनी दासियों को दैव-यज्ञों में दक्षिणा के रूप में दान देते थे। जब यज्ञों का पतन हुआ, तब इस प्रकार के विवाह का भी महत्व समाप्त हो गया है।
4. गान्धर्व विवाह - प्राचीनकाल में इस प्रकार के विवाह को कम महत्व प्राप्त था। यह विवाह असुर विवाह से भी कम दर्जे पर था। इस विवाह के अन्तर्गत कन्या तथा वर दोनों अपनी-अपनी इच्छाओं से इस विवाह से पति-पत्नी का रूप धारण करते थे। इस प्रकार के विवाह को मैथुन्य तथा काम संभव के नाम से भी पुकारा जाता था। वर तथा कन्या एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होकर बिना गुरु तथा माता-पिता से आज्ञा लिये हुए विवाह करते थे। प्राचीन भारतीय हिन्दू समाज में इस प्रकार का विवाह भी मान्य था। वात्स्यायान ने इस प्रकार के विवाह को भी सर्वश्रेष्ठ विवाह के रूप में स्वीकार किया है। दुष्यन्त तथा शकुन्तला का विवाह, उदयन तथा वासवदत्ता का विवाह, पुरूरवा तथा उर्वशी का विवाह, पृथ्वीराज चौहान तथा संयोगिता का विवाह इसी पद्धति से हुए थे। प्राचीन हिन्दू समाज में इस प्रकार के विवाह को साधारण जनता कुछ अच्छी दृष्टि से नहीं देखती थी। कभी-कभी ऐसा विवाह कट्टर दुश्मनी का रूप धारण कर लेता था। पृथ्वीराज चौहान और जयचन्द के बीच इसी विवाह के कारण दुश्मनी पैदा हुई। जयचन्द ने मुहम्मद गोरी के द्वारा पृथ्वीराज चौहान के वंश के राज्य को सदा के लिए समाप्त कर दिया। आज के युग में इस प्रकार के विवाह का चलन कुछ बढ़ता हुआ दिखाई पड़ता है। इसको प्रेम विवाह के नाम से पुकारा जाता है। जिसकी शुरूआत बड़ी सुन्दर परन्तु इसका अन्त बड़ा दर्दनाक हुआ करता है।
5. आर्ष विवाह - इस विवाह में वर को एक या दो गायें कन्या के पिता को देनी पड़ती थीं। इसके बाद ही कन्या का पिता इस विवाह के सहारे अपनी कन्या वर को सौंप देता था। अर्थशास्त्र में इस विवाह को गोमिथुन दान आर्ष कहा है। गोमिथुनं अर्थात् नामों के जोड़ों का दान देकर ही यह विवाह हुआ करता था। कुछ विद्वानों का मत है कि यह कन्या का मूल्य होता था। परन्तु इस मत को अधिकतर विद्वान स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वर जो गायें कन्या के पिता को देता था। वे कन्यादान के पश्चात् उसको वापस कर दी जाती थीं। अगस्त्य, ऋषि का विवाह लोपा मुद्रा के साथ इसी प्रकार से हुआ था।
6. राक्षस विवाह - वर राक्षसी प्रवृत्ति धारण करके कन्या को बलपूर्वक अपहरण करके जो विवाह किया जाता था, वह राक्षस विवाह के नाम से प्राचीन हिन्दू समाज में प्रचलित था। इस प्रकार के विवाह के समय युद्ध भी हुआ करता था। वह जब किसी कन्या से विवाह करना चाहता था और कन्या के माता-पिता उससे विवाह करने पर तैयार नहीं होते थे, तब वर पक्ष, कन्या पक्ष पर आक्रमण कर देता था और कन्या को अपहरण करके जबरदस्ती उससे विवाह कर लेता था। अर्जुन तथा सुभद्रा तथा कृष्ण और रुक्मिणी के विवाह इसी पद्धति के आधार पर हुए थे। मनुस्मृति में इस विवाह का उल्लेख निम्न रूप में है
हत्वा छित्वा य भित्वा य क्रोशन्ती रुदती गृहात।
प्रसह्य कन्या हरतो राक्षसो विधि रुच्यतो ॥
7. प्रजापत्य विवाह - इस विवाह के समय कन्या पक्ष द्वारा द्वारा वर पक्ष का आदर सत्कार किया जाता था। वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष के घर जाते थे। कन्यादान से पूर्व वर-वधू दोनों ही धर्मानुसार गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए वचन लेते थे। इस विवाह के अंतर्गत कन्यादान एक दान न होकर एक बन्धन के रूप में स्वीकार की जाती थी। दोनों को अपने-अपने अन्तिम घड़ी तक अपना वचन निभाना पड़ता था। पति के साथ पत्नी को भी वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना पड़ता था।
8. पैशाच विवाह - प्राचीन हिन्दू समाज में इस प्रकार का विवाह सबसे गिरी हुई दृष्टि से देखा जाता था। इस विवाह के अंतर्गत सोती हुई, नींद में मदहोश व उन्मत हुई कन्या का अपहरण करके उसके साथ जो विवाह होता था, उसको पैशाच विवाह के नाम से पुकारा जाता था। हिन्दू धर्मशास्त्रों में इस प्रकार के विवाह को अधर्म विवाह कहा गया है। धर्मशास्त्रों में ऐसे विवाह के पश्चात् उत्पन्न हुई संतान के लिए कहा गया है। “पैशाच विवाह से उत्पन्न बालक क्रूर तथा पापी होते हैं। इस प्रकार के विवाह में न तो प्रेम की भावना होती है और न ही धर्म की भावना हुआ करती है।
प्राचीन भारतीय हिन्दू समाज में ब्राह्मण विवाह, दैव विवाह, आर्ष विवाह, प्रजापत्य विवाह सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे।
उस समय अन्तर्जातीय विवाहों का भी चलन था जिनके निम्न दो रूप थे-
अनुलोम विवाह- अनुलोम विवाह का अधिक चलन मौर्य साम्राज्य तथा उसके बाद में युगों में दिखाई देता है। जब उच्च वर्ण का पुरुष वर, निम्न वर्ण की कन्या से विवाह करता था तो उसका अनुलोम विवाह कहते थे। ब्राह्मण वर्ण का वर, क्षत्रिय, वैश्यं तथा शूद्र वर्ण की कन्या से विवाह कर सकता था। वैश्य वर्ण का वर शूद्र वर्ण की कन्या से विवाह कर सकता था। ब्राह्मण ऋषि च्यवन ने क्षत्रिय कन्या सुकन्या के साथ इसी विवाह के अंतर्गत विवाह किया था।
प्रतिलोम विवाह - जब उच्च वर्ण की कन्या निम्न वर्ण के पुरुष से विवाह कर लेती थी तो ऐसा विवाह प्रतिलोम विवाह कहा जाता था। हिन्दू समाज में प्राचीनकाल में इस प्रकार के विवाह का चलन बहुत ही कम था। इस प्रकार के विवाह के पश्चात् उत्पन्न होने वाली संतान को वर्ण संस्कार के रूप में मान्यता दी गई है।
याज्ञवल्क्य - ने भी अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाहों का उल्लेख किया है। अनुलोम विवाह से उत्पन्न सन्तान पिता वर्ण, जाति की मानी जाती थी और प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न सन्तान, अपने पिता एवं माता की सामाजिक स्थिति से निम्न स्थिति वाली होती थी। कालान्तर में इन विवाहों को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा।
बहु-विवाह - प्राचीनकाल में बहुविवाह की प्रथा भी प्रचलित थी। कुछ इतिहासकारों का कथन है कि ब्राह्मण चार स्त्रियों से, क्षत्रिय तीन स्त्रियों से, वैश्य दो स्त्रियों से तथा शूद्र केवल एक स्त्री से विवाह कर सकता था। परन्तु राजा की कई-कई रानियाँ होती थीं। राजा गंगेय देव की सौ रानियाँ थीं।
उस समय तलाक प्रथा नहीं थी। पति की मृत्यु होने पर उसकी विधवा दूसरा विवाह नहीं कर सकती थी, परन्तु के देहान्त होने पर उसका पति दूसरा विवाह कर सकता था। बहुविवाह की प्रथा उस समय प्रचलित थी। इस पर संदेह नहीं किया जा सकता था।
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